Thursday, July 24, 2008

झुरमुट के उस ओर


पेड़ों के झुरमुट के पीछे कई नई रौशनियाँ दिखीं, बहुत घना हुआ करता था, अब हम माडर्न हो रहे हैं। शहर के कोने में किसी दुर्लभ जीव कि तरह छुपा यह सुहावना अँधेरा कुछ दिनों का मेहमान लगता है। कोई अगर इन उमरदराज़ रौशनियों को बंद कर दे तो मै अंधेरे के कुछ घूँट पी लूँ। जब मंद बयार बहती है और शहर शांत हो जाता है तब पत्तों की सरसराहट का संगीत मुझे दुकेलेपन का एहसास दिलाता है।

शायद कोई नई इमारत बन रही है, जो कुछ समय बाद पेड़ों के पीछे से अपना सर उठाएगी और आस पास की हरियाली को देख कह उठेगी कि "वाह! कितना हरा है शहर का यह कोना।" मुझे इस बात का गम नही कि कुछ और लोग यहाँ आ जायेंगे, कि कुछ और गाड़ियां इन कम इस्तेमाल होने वाली सड़कों पर दौड़ेंगी या देर रात गए किसी कि गाड़ी के रिवर्स होने का ऐलान सुनाई देगा, मुझे इस बात की भी फ़िक्र नही कि जिस अंधेरे में देखने का मै आदी हूँ उस अंधेरे में कुछ बत्तियां नज़र आयेंगी या हवा के एक रुख को यह इमारत रोक लेगी। मुझे गम इस बात का है कि जब वहां कि किसी बालकनी में बैठा कोई पेड़ों के झुरमुट के उस और से मेरी तरफ़ देखेगा तो यही कहेगा कि झुरमुट अगर थोड़ा और घना होता तो कैसा होता। और जब किसी नई इमारत कि नींव पड़ेगी तो वह एक कलम लिए कागज़ रंग रहा होगा इस गम में कि मेरा झुरमुट और छितरा गया।

मुझे इंतज़ार है अपने गम में शरीक होने वालों का।
कागज़ कलम वालों का, हरियाली खोने वालों का॥